हमारे चेहरे पे रंज-ओ-मलाल ऐसा था
मसर्रतों का ज़माने में काल ऐसा था
फ़ज़ा-ए-शहर में बारूद की थी बू शामिल
कि साँस लेना भी हम को मुहाल ऐसा था
अमीर-ए-शहर के होंटों पे पड़ गए ताले
ग़रीब-ए-शहर का चुभता सवाल ऐसा था
ब-वक़्त-ए-शाम समुंदर में गिर गया सूरज
तमाम दिन की थकन से निढाल ऐसा था
तमाम घोंसले ख़ाली थे नंगे पेड़ों पर
हुदूद-ए-दश्त में वक़्त-ए-ज़वाल ऐसा था
वो जब भी मिलते हैं ज़ख़्मों के फूल देते हैं
हमारा राब्ता उन से बहाल ऐसा था
ज़मीं पे झुकने लगी ख़ुद-ब-ख़ुद हर इक डाली
दरख़्त कर्ब-ए-नुमू से निढाल ऐसा था
ख़ुद अपने आप से भी मैं रहा हूँ बेगाना
हिसार-ए-दिल में किसी का ख़याल ऐसा था
ग़ज़ल
हमारे चेहरे पे रंज-ओ-मलाल ऐसा था
अज़हर नैयर