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हम यूँ ही किसी से ख़लिश-ए-जाँ नहीं कहते | शाही शायरी
hum yun hi kisi se KHalish-e-jaan nahin kahte

ग़ज़ल

हम यूँ ही किसी से ख़लिश-ए-जाँ नहीं कहते

एम ए क़दीर

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हम यूँ ही किसी से ख़लिश-ए-जाँ नहीं कहते
रूदाद-ए-अलम ता-हद-ए-इम्काँ नहीं कहते

जो अपने फ़राएज़ से निपटने में उलझ जाए
हम लोग उसे ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ नहीं कहते

करते ही नहीं बात कभी मस्लहत-आमेज़
मकरूह रुख़ों को मह-ए-ताबाँ नहीं कहते

अब ऐसे बड़े लोग ज़माने में कहाँ हैं
जो कर के किसी पर कोई एहसाँ नहीं कहते

जो शाम हो अनवार-ए-शहादत से मुनव्वर
उस शाम को हम शाम-ए-ग़रीबाँ नहीं कहते

तन्क़ीद में करते हैं जो इंसाफ़ से परहेज़
दर-अस्ल 'क़दीर' उन को सुख़न-दाँ नहीं कहते