हम यूँ ही किसी से ख़लिश-ए-जाँ नहीं कहते
रूदाद-ए-अलम ता-हद-ए-इम्काँ नहीं कहते
जो अपने फ़राएज़ से निपटने में उलझ जाए
हम लोग उसे ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ नहीं कहते
करते ही नहीं बात कभी मस्लहत-आमेज़
मकरूह रुख़ों को मह-ए-ताबाँ नहीं कहते
अब ऐसे बड़े लोग ज़माने में कहाँ हैं
जो कर के किसी पर कोई एहसाँ नहीं कहते
जो शाम हो अनवार-ए-शहादत से मुनव्वर
उस शाम को हम शाम-ए-ग़रीबाँ नहीं कहते
तन्क़ीद में करते हैं जो इंसाफ़ से परहेज़
दर-अस्ल 'क़दीर' उन को सुख़न-दाँ नहीं कहते

ग़ज़ल
हम यूँ ही किसी से ख़लिश-ए-जाँ नहीं कहते
एम ए क़दीर