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हम तुम कि रोज़-ओ-शब मिले शाम-ओ-सहर मिले | शाही शायरी
hum tum ki roz-o-shab mile sham-o-sahar mile

ग़ज़ल

हम तुम कि रोज़-ओ-शब मिले शाम-ओ-सहर मिले

वक़ार मानवी

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हम तुम कि रोज़-ओ-शब मिले शाम-ओ-सहर मिले
लेकिन न दिल न ज़ाविया-हा-ए-नज़र मिले

छलनी हैं पाँव काँटों-भरी रहगुज़र मिले
हम को हमारी शान के शायाँ सफ़र मिले

मैं भी कुछ अपने कर्ब का इज़हार कर सकूँ
मुझ को भी कुछ सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर मिले

बे-माँगे पाएँ बूँद भी प्यासे तो जी उठें
दरिया भी ले के ख़ुश न हों माँगे से गर मिले

हम बिजलियों की ज़द में मुसलसल रहें तो क्यूँ
ये क्या कि बिजलियों को हमारा ही घर मिले

गुलशन शगुफ़्तगी से इबारत न हो सका
ग़ुंचे खिले खिले से तो हर शाख़ पर मिले

पैमाँ तो ये था मिल के न बिछड़ेंगे उम्र-भर
बिछड़े तो इस तरह कि न फिर उम्र-भर मिले

तासीर के बग़ैर दुआ का भी क्या मज़ा
लुत्फ़-ए-दुआ ये है कि कि दुआ को असर मिले

खुल कर तुम उन से भी न मिले जिन से क़ुर्ब था
और हम कि जिस किसी से मिले टूट कर मिले

डर है कहीं नतीजा रिहाई का ये न हो
ज़िंदाँ के हम रहें न हमें अपना घर मिले

किस दिल से आरज़ू-ए-ख़ुशी कीजिए कि अब
हिस तक ख़ुशी की मिट गई ग़म इस क़दर मिले

ये ज़िंदगी वो तपता हुआ रेगज़ार है
जिस में कहीं न साया न शाख़-ए-शजर मिले

वो हादसे जो वज्ह-ए-तबाही बने 'वक़ार'
उन में से कुछ तो घर की ही दहलीज़ पर मिले