EN اردو
हम तो कहते थे दम-ए-आख़िर ज़रा सुस्ता न जा | शाही शायरी
hum to kahte the dam-e-aKHir zara susta na ja

ग़ज़ल

हम तो कहते थे दम-ए-आख़िर ज़रा सुस्ता न जा

जुरअत क़लंदर बख़्श

;

हम तो कहते थे दम-ए-आख़िर ज़रा सुस्ता न जा
ले, चले हम जान से, मुख़्तार है अब जा न जा

ले दिल-ए-बेताब आता है वो कर ले अर्ज़-ए-हाल
देखते ही उस की सूरत इस क़दर घबरा न जा

तंग हो कर किस अदा से वस्ल की शब को वो शोख़
मुझ से कहता था कि हे हे इस क़दर लिपटा न जा

पास आना गर नहीं मंज़ूर तो आ आ के शक्ल
अज़-रह-ए-शोख़ी मुझे तू दूर से दिखला न जा

जाऊँ जाऊँ क्या कहे है बस लड़ाई हो चुकी
प्यार से मेरे गले अब जान-ए-जाँ लग जा न जा

क्या समाँ रखता है वो महफ़िल से उठना यार का
और इशारों से मिरा कहना कि आ जाना, न जा

कहते हैं आता है वो ऐ जान बर-लब-आमदा
तू ख़ुदा के वास्ते टुक और भी रह जा न जा

रूठ कर जब मुझ से वो जाता है तो कर ज़ब्त-ए-आह
पहले तो कहता हूँ मैं ''तू जान अब जा या न जा''

लेक उठ कर जब वो जाता है तो बे-ताबी से मैं
वूँ ही कहता हूँ ''तिरे क़ुर्बान जाऊँ आ, न जा''

लोटता है 'जुरअत'-ए-बेताब जाने से तिरे
यूँ उसे तड़पा के तू ऐ शोख़-ए-बे-परवा, न जा