हम तो अब जाती रुतें हैं हम से ये इग़्माज़ क्यूँ
जुर्म क्या हम ने किया है आप हैं नाराज़ क्यूँ
माल-ओ-ज़र से बहरा-ए-वाफ़िर न देना था अगर
ऐ ख़ुदा तू ने दिया मुझ को दिल-ए-फ़य्याज़ क्यूँ
रिश्ता-ए-ज़र रिश्ता-ए-ख़ूँ से है बढ़ कर मो'तबर
वर्ना चाहत के लिए क़र्ज़ा बने मिक़राज़ क्यूँ
ख़ेश-बीनी जब कि इस का केश-ए-कम-अंदेश था
दोस्ती का पास करता बंदा-ए-अग़राज़ क्यूँ
क्या नई तहज़ीब है तकज़ीब-ए-अक़दार-ए-सलीम
शहर में फैले हुए हैं जिंस के अमराज़ क्यूँ
लुत्फ़-अंदोज़-ए-रियाज़-ए-दहर क्यूँ होते नहीं
दावरा कम-ज़र्फ़ होते हैं तिरे मरताज़ क्यूँ
कुछ हक़ाएक़ को अगर मैं ने किया है बे-नक़ाब
हो गए नाराज़ मुझ से शेर के नब्बाज़ क्यूँ
पूछते हैं दे के मुझ को दोस्त-दारी का फ़रेब
'कृष्ण'-मोहन दोस्तों से इस क़दर ए'राज़ क्यूँ

ग़ज़ल
हम तो अब जाती रुतें हैं हम से ये इग़्माज़ क्यूँ
कृष्ण मोहन