EN اردو
हम तिरे हुस्न-ए-जहाँ-ताब से डर जाते हैं | शाही शायरी
hum tere husn-e-jahan-tab se Dar jate hain

ग़ज़ल

हम तिरे हुस्न-ए-जहाँ-ताब से डर जाते हैं

अब्बास रिज़वी

;

हम तिरे हुस्न-ए-जहाँ-ताब से डर जाते हैं
ऐसे मुफ़्लिस हैं कि अस्बाब से डर जाते हैं

ख़ौफ़ ऐसा है कि दुनिया के सताए हुए लोग
कभी मिम्बर कभी मेहराब से डर जाते हैं

रात के पिछले पहर नींद में चलते हुए लोग
ख़ून होते हुए महताब से डर जाते हैं

शाद रहते हैं इसी जामा-ए-उर्यानी में
हाँ मगर अतलस-ओ-कमख़्वाब से डर जाते हैं

कभी करते हैं मुबारज़-ए-तलबी दुनिया से
और कभी ख़्वाहिश-ए-बेताब से डर जाते हैं

जी तो कहता है कि चलिए उसी कूचे की तरफ़
हम तिरी बज़्म के आदाब से डर जाते हैं

हम तो वो हैं कि जिन्हें रास नहीं कोई नगर
कभी साहिल कभी गिर्दाब से डर जाते हैं