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हम से करता है अबस गुफ़्तार कज | शाही शायरी
humse karta hai abas guftar kaj

ग़ज़ल

हम से करता है अबस गुफ़्तार कज

मीर कल्लू अर्श

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हम से करता है अबस गुफ़्तार कज
रास्त-बाज़ों से न हो ऐ यार कज

इश्क़-ए-अबरू से तिरी ऐ कज-कुलाह
बाँधता है माह-ए-नौ दस्तार कज

है तवाज़ो भी बुज़ुर्गी का निशाँ
क्यूँ न हो पीरी में जिस्म-ए-ज़ार कज

कज-रवी इस ज़ुल्फ़ का है ख़ास्सा
जिस तरह है मार की रफ़्तार कज

हात यूँ क़ातिल-जबीनों का लगा
जिस तरह पहने सनम ज़ुन्नार कज

रास्ती इक बात में उस की नहीं
कज रवा कज-मज ज़बाँ गुफ़्तार कज

क़स्र-ए-तन पीरी में झुक कर क्या रुके
गिर पड़े कोहना जो हो दीवार कज

जा-ए-नज़्ज़ारा है फिरते हैं हसीं
टोपियाँ रख कर सर-ए-बाज़ार कज

कज-नुमा आईना-ए-आलम है 'अर्श'
बे-सबब टेढ़े अबस हैं यार कज