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हम ने खुलने न दिया बे-सर-ओ-सामानी को | शाही शायरी
humne khulne na diya be-sar-o-samani ko

ग़ज़ल

हम ने खुलने न दिया बे-सर-ओ-सामानी को

उबैदुल्लाह अलीम

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हम ने खुलने न दिया बे-सर-ओ-सामानी को
कहाँ ले जाएँ मगर शहर की वीरानी को

सिर्फ़ गुफ़्तार से ज़ख़्मों का रफ़ू चाहते हैं
ये सियासत है तो फिर क्या कहीं नादानी को

कोई तक़्सीम नई कर के चला जाता है
जो भी आता है मिरे घर की निगहबानी को

अब कहाँ जाऊँ कि घर में भी हूँ दुश्मन अपना
और बाहर मिरा दुश्मन है निगहबानी को

बे-हिसी वो है कि करता नहीं इंसाँ महसूस
अपनी ही रूह में आई हुई तुग़्यानी को

आज भी उस को फ़राज़ आज भी आली है वही
वही सज्दा जो करे वक़्त की सुल्तानी को

आज यूसुफ़ पे अगर वक़्त ये लाए हो तो क्या
कल तुम्हीं तख़्त भी दोगे इसी ज़िंदानी को

सुब्ह खलने की हो या शाम बिखर जाने की
हम ने ख़ुशबू ही किया अपनी परेशानी को

वो भी हर-आन नया मेरी मोहब्बत भी नई
जल्वा-ए-हुस्न कशिश है मिरी हैरानी को

कूज़ा-ए-हर्फ़ में लाया हूँ तुम्हारी ख़ातिर
रूह पर उतरे हुए एक अजब पानी को