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हम ने इक उम्र में क्या क्या न जहाँ देखे हैं | शाही शायरी
humne ek umr mein kya kya na jahan dekhe hain

ग़ज़ल

हम ने इक उम्र में क्या क्या न जहाँ देखे हैं

साजिदा ज़ैदी

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हम ने इक उम्र में क्या क्या न जहाँ देखे हैं
आसमाँ देखे हैं और क़ा'र-ए-निहाँ देखे हैं

जिन की बातों में तजल्ली थी ख़मोशी में तिलिस्म
वही अर्बाब-ए-हुनर सोख़्ता-जाँ देखे हैं

नग़्मा-ओ-शे'र-ओ-ज़बाँ अहल-ए-सियासत के क़तील
पूरी तहज़ीब के मिटने के निशाँ देखे हैं

इक़तिदार-ओ-हवस-ओ-शोर-ओ-मुनाफ़िक़-नज़री
जिन का शेवा रहा वो पीर-ए-मुग़ाँ देखे हैं

जिंस-ए-अर्ज़ां की तरह बिकते हुए अहल-ए-क़लम
इश्तिहारों में सजे गुल-बदनाँ देखे हैं

जिन से तारीख़ के सफ़्हात भी जाग उठते थे
वो ज़माने वो फ़साने गुज़राँ देखे हैं

वो हिकायात रक़म कीं कि क़लम ख़ूँ रोया
हर रग-ए-ताक पे ज़ख़्मों के वहाँ देखे हैं

एक इक हर्फ़ से रौशन हुए जाते थे उफ़ुक़
आइने सेहर-ए-दबिस्ताँ में निहाँ देखे हैं

जिन की जादू-असरी ताना-ए-अहबाब बनी
वो तिलिस्मात लिखे हर्फ़-ओ-बयाँ देखे हैं

जिन की ता'बीर में इक उम्र गँवा दी हम ने
राज़ वो सीना-ए-गीती में निहाँ देखे हैं

जलते बाम-ओ-दर-ओ-दीवार सुलगते हुए शहर
जिन से पथरा गईं आँखें वो समाँ देखे हैं

आसमाँ-गीर थे शो'ले ख़स-ओ-ख़ाशाक थे जिस्म
क़ैद-ए-बे-जुर्म में सब पीर-ओ-जवाँ देखे हैं

दिल ने हर ज़र्रा के हमराह धड़कना सीखा
तब नवाओं में ये मा'नी के जहाँ देखे हैं