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हम-नशीं उन के तरफ़-दार बने बैठे हैं | शाही शायरी
ham-nashin un ke taraf-dar bane baiThe hain

ग़ज़ल

हम-नशीं उन के तरफ़-दार बने बैठे हैं

ज़हीर देहलवी

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हम-नशीं उन के तरफ़-दार बने बैठे हैं
मेरे ग़म-ख़्वार दिल-आज़ार बने बैठे हैं

बात क्या उन से करूँ उन के उठाऊँ क्यूँ-कर
मुद्दई बीच में दीवार बने बैठे हैं

ना-तवानी ने उधर पाँव पकड़ रक्खे हैं
वो नज़ाकत से गिराँ-बार बने बैठे हैं

क्या बुरी शय है मोहब्बत भी इलाही तौबा
जुर्म-ए-ना-कर्दा ख़ता-वार बने बैठे हैं

बेवफ़ाई के गिले जिन के हुए थे कल तक
आज दुनिया के वफ़ादार बने बैठे हैं

वो हैं और ग़ैर हैं और ऐश के सामान 'ज़हीर'
हम अलग सब से गुनहगार बने बैठे हैं