हम-नफ़सो उजड़ गईं मेहर-ओ-वफ़ा की बस्तियाँ
पूछ रहे हैं अहल-ए-मेहर-ओ-वफ़ा को क्या हुआ
इश्क़ है बे-गुज़ार क्यूँ हुस्न है बे-नियाज़ क्यूँ
मेरी वफ़ा कहाँ गई उन की जफ़ा को क्या हुआ
ये तो बजा कि अब वो कैफ़ जाम-ए-शराब में नहीं
साक़ी-ए-मय के ग़म्ज़ा-ए-होश-रुबा को क्या हुआ
अब नहीं जन्नत मशाम-ए-कूचा-ए-यार की शमीम
निकहत-ए-ज़ुल्फ़ क्या हुई बाद-ए-सबा को क्या हुआ
थम गया दौरा-ए-हयात रुक गई नब्ज़-ए-काएनात
इश्क़-ओ-जुनूँ की गर्मी-ए-हमहमा-ज़ा को क्या हुआ
दश्त-ए-जुनूँ में हो गई मंज़िल-ए-यार बे-सुराग़
क़ाफ़िला किस तरफ़ गया बाँग-ए-दरा को क्या हुआ
नाला-ए-शब है ना-रसा आह-ए-सहर है बे-असर
मेरा ख़ुदा कहाँ गया मेरे ख़ुदा को क्या हुआ
ग़ज़ल
हम-नफ़सो उजड़ गईं मेहर-ओ-वफ़ा की बस्तियाँ
अब्दुल मजीद सालिक