हम न बुत-ख़ाने में ने मस्जिद-ए-वीराँ में रहे
हसरत-ओ-आरज़ू-ए-जल्वा-ए-जानाँ में रहे
ख़ूँ है वो जिस से कि हो दामन-ए-क़ातिल रंगीं
ख़ून फ़ासिद है जो ख़ाली सर-ए-मिज़्गाँ में रहे
हम ने मस्नूअ से साने की हक़ीक़त पाई
बे-सबब हम नहीं नज़्ज़ारा-ए-ख़ूबाँ में रहे
सुब्ह ख़ुर्शीद को देखा हवस-ए-आरिज़ में
शाम से रौशनी-ए-शम्-ए-शबिस्ताँ में रहे
तोड़ा ज़ुन्नार को तस्बीह को फेंका हम ने
इश्क़-ए-रुख़ था हवस-ए-नूर-ए-दरख़्शाँ में रहे
जा-ब-जा हम को रही जल्वा-ए-जानाँ की तलाश
दैर-ओ-काबा में फिरे सोहबत-ए-रहबाँ में रहे
ख़ल्वत-ए-दिल की न कुछ क़द्र को समझे हाजी
तौफ़-ए-काबा के लिए दश्त-ओ-बयाबाँ में रहे
उन असीरों को हुइ क़ैद-ए-तअय्युन से नजात
जो कि पाबंद तिरे गेसू-ए-पेचाँ में रहे
इस ज़मीं में ग़ज़ल इक और भी लिक्खो 'बहराम'
ये दो-गज़ला तो भला आप के दीवाँ में रहे
ग़ज़ल
हम न बुत-ख़ाने में ने मस्जिद-ए-वीराँ में रहे
बहराम जी