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हम मुसाफ़िर यूँही मसरूफ़-ए-सफ़र जाएँगे | शाही शायरी
hum musafir yunhi masruf-e-safar jaenge

ग़ज़ल

हम मुसाफ़िर यूँही मसरूफ़-ए-सफ़र जाएँगे

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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हम मुसाफ़िर यूँही मसरूफ़-ए-सफ़र जाएँगे
बे-निशाँ हो गए जब शहर तो घर जाएँगे

किस क़दर होगा यहाँ मेहर-ओ-वफ़ा का मातम
हम तिरी याद से जिस रोज़ उतर जाएँगे

जौहरी बंद किए जाते हैं बाज़ार-ए-सुख़न
हम किसे बेचने अलमास-ओ-गुहर जाएँगे

नेमत-ए-ज़ीस्त का ये क़र्ज़ चुकेगा कैसे
लाख घबरा के ये कहते रहें मर जाएँगे

शायद अपना भी कोई बैत हुदी-ख़्वाँ बन कर
साथ जाएगा मिरे यार जिधर जाएँगे

'फ़ैज़' आते हैं रह-ए-इश्क़ में जो सख़्त मक़ाम
आने वालों से कहो हम तो गुज़र जाएँगे