हम मुसाफ़िर हैं कि मक़्सूद-ए-सफ़र जानते हैं
कैसे बनती है कोई राहगुज़र जानते हैं
बे-घरी ज़ाद-ए-सफ़र हो तो ठहरना कैसा
इतने आदाब तो ये ख़ाक-ब-सर जानते हैं
राह-ए-सुन्नत भी यही जादा-ए-हिजरत भी यही
पाँव रुक जाएँ जहाँ भी उसे घर जानते हैं
क्या ख़बर डूब के उभरीं कि उभर कर डूबें
ज़ीस्त को हम तो समुंदर का सफ़र जानते हैं
कितनी इस दौर में आज़ादी है मजबूरों को
ख़ौफ़ की आग में जलते हुए पर जानते हैं
ख़ुश्क होंटों पे लिखी है ये कहानी किस ने
कह नहीं सकते मगर दीदा-ए-तर जानते हैं
कोई महरम है कि महरूम हमें क्या मालूम
उन से पूछो जो मक़ामात-ए-नज़र जानते हैं
हम को आते नहीं अंदाज़-ए-हुनर-मंदी-ए-फ़न
ये अलग बात कि तौक़ीर-ए-हुनर जानते हैं
घर से बाहर जो निकलते ही नहीं हैं 'अतहर'
कितनी आसान तिरी राहगुज़र जानते हैं

ग़ज़ल
हम मुसाफ़िर हैं कि मक़्सूद-ए-सफ़र जानते हैं
इसहाक़ अतहर सिद्दीक़ी