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हम मर गए प शिकवे की मुँह पर न आई बात | शाही शायरी
hum mar gae pa shikwe ki munh par na aai baat

ग़ज़ल

हम मर गए प शिकवे की मुँह पर न आई बात

रज़ा अज़ीमाबादी

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हम मर गए प शिकवे की मुँह पर न आई बात
क्यूँ बे-ज़बान आशिक़ों की आज़माई बात

दावा-ए-इश्क़ करने का क्या मुँह किसी का था
कम बोलने ने तेरे ये सारी बढ़ाई बात

हम-पेशगी की मुझ से करे गुफ़्तुगू रक़ीब
मुँह उस का देखो है ये तुम्हारी सिखाई बात

सब कुछ पढ़ाया हम को मुदर्रिस ने इश्क़ के
मिलता है जिस से यार न ऐसी पढ़ाई बात

अपना किसे कहूँ न कहूँ किस को है ग़ज़ब
जिस वक़्त मुँह से निकली हुई फिर पराई बात

क्या ग़ैर ने कहा कि लगे बुदबुदाने तुम
मैं ने भी छेड़ने की नई अब तो पाई बात

मज़कूरा कल का जाने दो हो जाओगे ख़फ़ा
थमती नहीं ज़बान पे जिस वक़्त आई बात

मजनूँ के नाम से मिरा हाल उस ने तब सुना
शुक्र-ए-ख़ुदा कि ख़ूब बन आई बनाई बात

बुलबुल का नाला आगे मिरे इस तरह से है
जिस तरह शहरियों से करे रूसताई बात

तक़रीर-ए-साफ़ पर जो 'रज़ा' की करे नज़र
अंधे के तईं अजब नहीं देवे दिखाई बात