हम को दिखा दिखा के ग़ैरों के इत्र मलना
आता है ख़ूब तुम को छाती पे मूँग दलना
महशर बपा किया है रफ़्तार ने तुम्हारी
इस चाल के तसद्दुक़ ये भी है कोई चलना
ग़ैरों के घर तो शब को जाते हो बारहा तुम
भूले से मेरे घर भी इक रोज़ आ निकलना
हट की कुछ इंतिहा है ज़िद की भी कोई हद है
ये बात बात पर तो अच्छा नहीं मचलना
जलता है ग़ैर हम से तो क्या ख़ता हमारी
तुम ये समझ लो उस की तक़दीर में है जलना
जब तक हैं तेरे दर पर दिल-बस्तगी सी है कुछ
ये आस्ताँ जो छूटा मुश्किल है जी बहलना
देखो 'हफ़ीज़' अपने जी की जो ख़ैर चाहो
बस्ते जिधर हसीं हों वो रास्ता न चलना
ग़ज़ल
हम को दिखा दिखा के ग़ैरों के इत्र मलना
हफ़ीज़ जौनपुरी