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हम कहाँ अज़्मत अस्लाफ़ सँभाले हुए हैं | शाही शायरी
hum kahan azmat aslaf sambhaale hue hain

ग़ज़ल

हम कहाँ अज़्मत अस्लाफ़ सँभाले हुए हैं

मुमताज़ गुर्मानी

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हम कहाँ अज़्मत अस्लाफ़ सँभाले हुए हैं
बस तिरे इश्क़ से माथे को उजाले हुए हैं

क़ैस ओ फ़रहाद तईं अपने हवाले हुए हैं
यानी हम मसनद-ए-उश्शाक़ सँभाले हुए हैं

जब भी पलटे हैं हमें हार दिखाई दी है
हम ने सिक्के ये कई बार उछाले हुए हैं

प्यास लगती है इन्हें देख के ऐ दश्त-नशीं
तेरी आँखें हैं या पानी के प्याले हुए हैं

हम ने इक उम्र किताबों के हवाले की है
तब कहीं जा के किताबों के हवाले हुए हैं

आईना बन के खड़े हैं तिरे दर पर चुप-चाप
कब तिरे सामने हम बोलने वाले हुए हैं

सूद बढ़ता गया साँसों का हमारे ऊपर
हम मोहब्बत में तिरी क़र्ज़ से काले हुए हैं

मैं भी फिर बैठ गया देखने क़िस्सा क्या है
रेत गीली है या फिर पाँव में छाले हुए हैं