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हम कब अज़-ख़ुद तिरे घर यार चले आते हैं | शाही शायरी
hum kab az-KHud tere ghar yar chale aate hain

ग़ज़ल

हम कब अज़-ख़ुद तिरे घर यार चले आते हैं

जुरअत क़लंदर बख़्श

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हम कब अज़-ख़ुद तिरे घर यार चले आते हैं
रह नहीं सकते तो नाचार चले आते हैं

ले ख़बर उस की शिताबी से कि आशिक़ को तिरे
ग़श पे ग़श शोख़ सितमगार चले आते हैं

मैं तो हैराँ हूँ मतब है कि दर-ए-यार है ये
याँ तो बीमार पे बीमार चले आते हैं

घर में घबराते हैं बे-यार तो हम वहशी से
सर-बरहना सर-ए-बाज़ार चले आते हैं

खड़े रह सकते नहीं दर पे तो हैरान से वाँ
बैठ कर हम पस-ए-दीवार चले आते हैं

किस के नालों की ये आँधी है कि शक्ल-ए-पर-ए-काह
आज उड़ते हुए कोहसार चले आते हैं