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हम जाना चाहते थे जिधर भी नहीं गए | शाही शायरी
hum jaana chahte the jidhar bhi nahin gae

ग़ज़ल

हम जाना चाहते थे जिधर भी नहीं गए

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

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हम जाना चाहते थे जिधर भी नहीं गए
और इंतिहा तो ये है कि घर भी नहीं गए

वो ख़्वाब जाने कैसे ख़राबे में गुम हुए
इस पार भी नहीं हैं इधर भी नहीं गए

साहिब तुम्हें ख़बर ही कहाँ थी कि हम भी हैं
वैसे तो अब भी हैं कोई मर भी नहीं गए

बारिश हुई तो है मगर इतनी कि ये ज़रूफ़
ख़ाली नहीं रहे हैं तो भर भी नहीं गए

'आदिल' ज़मीन-ए-दिल से ज़माने ख़याल के
गुज़रे कुछ इस तरह कि गुज़र भी नहीं गए