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हम ही बदलेंगे रह-ओ-रस्म-ए-गुलिस्ताँ यारो | शाही शायरी
hum hi badlenge rah-o-rasm-e-gulistan yaro

ग़ज़ल

हम ही बदलेंगे रह-ओ-रस्म-ए-गुलिस्ताँ यारो

अहमद रियाज़

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हम ही बदलेंगे रह-ओ-रस्म-ए-गुलिस्ताँ यारो
हम से वाबस्ता है ता'मीर-ए-बहाराँ यारो

क़ुरबत-ए-काकुल-ओ-रुख़सार से जी तंग नहीं
इक ज़रा चैन तो दे गर्दिश-ए-दौराँ यारो

लाख हम मरहला-ए-दार-ओ-रसन से गुज़रे
ज़िंदगी से न हुए फिर भी गुरेज़ाँ यारो

इक थका ख़्वाब कि सीने में सुलगता है अभी
इक दबी याद कि है नीश-ए-रग-ए-जाँ यारो

आमद-ए-सुब्ह से मायूस नहीं हैं लेकिन
डस न ले तीरगी-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ यारो

और कुछ दूर कि थोड़ी है रह-ए-जौर-ओ-सितम
और कुछ देर कि टूटा दर-ए-ज़िंदाँ यारो

अपना दुख हो तो 'रियाज़' उस का मुदावा करते
हैं सभी शो'ला-ब-जाँ चाक-ए-गरेबाँ यारो