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हम एक उम्र जले शम-ए-रहगुज़र की तरह | शाही शायरी
hum ek umr jale sham-e-rahguzar ki tarah

ग़ज़ल

हम एक उम्र जले शम-ए-रहगुज़र की तरह

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

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हम एक उम्र जले शम-ए-रहगुज़र की तरह
उजाला ग़ैरों से क्या माँगते क़मर की तरह

कहाँ के जेब-ओ-गरेबाँ जिगर भी चाक हुए
बहार आई क़यामत के नामा-बर की तरह

करम कहो कि सितम दिल-दही का हर अंदाज़
उतर उतर सा गया दिल में नेश्तर की तरह

न हादसों की कमी है न शोरिशों की कमी
चमन में बर्क़ भी पीती है बाल-ओ-पर की तरह

न-जाने क्यूँ यहाँ वीरानियाँ बरसती हैं
सभी के घर हैं ब-ज़ाहिर हमारे घर की तरह

ख़ुदा करे कि सदा कारोबार-ए-शौक़ चले
जो बे-नियाज़ हो मंज़िल से इस सफ़र की तरह

बस और क्या कहें रूदाद-ए-ज़िंदगी 'ताबाँ'
चमन में हम भी हैं इक शाख़-ए-बे-समर की तरह