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हम दश्त-ए-बे-कराँ की अज़ाँ हो गए तो क्या | शाही शायरी
hum dasht-e-be-karan ki azan ho gae to kya

ग़ज़ल

हम दश्त-ए-बे-कराँ की अज़ाँ हो गए तो क्या

पी पी श्रीवास्तव रिंद

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हम दश्त-ए-बे-कराँ की अज़ाँ हो गए तो क्या
वहशत में अब की बार ज़ियाँ हो गए तो क्या

बासी घुटन से घर के अँधेरे न कम हुए
हम रात जुगनुओं की दुकाँ हो गए तो क्या

उलझन बढ़ी तो चंद ख़राबे ख़रीद लाए
सौदे में अब की बार ज़ियाँ हो गए तो क्या

घर में हमारे क़ैद रहा ज़िंदगी का शोर
हम बे-ज़बान नज़र-ए-फ़ुग़ाँ हो गए तो क्या

हम हैं हमारा शहर है पुख़्ता मकान है
कुछ मक़बरे नसीब-ए-ख़िज़ाँ हो गए तो क्या

सत-रंग आसमाँ की धनक है तुम्हारे साथ
हम दलदली ज़मीन यहाँ हो गए तो क्या

जब धूप आसमान के हुजरे में सो गई
आसेब तीरगी के जवाँ हो गए तो क्या

पतझड़ ने जब से माँग सजाई है अपनी 'रिंद'
हम सूनी रहगुज़र का निशाँ हो गए तो क्या