हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे
थक गए तो ख़्वाब की दहलीज़ पर सोते रहे
लोग लहजे का सुहाना-पन सुख़न की नग़्मगी
शहर की आबादियों के शोर में खोते रहे
क्यूँ मता-ए-दिल के लुट जाने का कोई ग़म करे
शहर-ए-दिल्ली में तो ऐसे वाक़िए होते रहे
सुर्ख़ियाँ अख़बार की गलियों में ग़ुल करती रहीं
लोग अपने बंद कमरों में पड़े सोते रहे
महफ़िलों में हम रफ़ीक़-ए-राज़-दाँ समझे गए
घर के आँगन में मगर तन्हाइयाँ बोते रहे

ग़ज़ल
हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे
ज़ुबैर रिज़वी