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हम भी थे गोशा-गीर कि गुमनाम थे बहुत | शाही शायरी
hum bhi the gosha-gir ki gumnam the bahut

ग़ज़ल

हम भी थे गोशा-गीर कि गुमनाम थे बहुत

अासिफ़ जमाल

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हम भी थे गोशा-गीर कि गुमनाम थे बहुत
इस तर्ज़-ए-ज़ीस्त में मगर आराम थे बहुत

दुनिया है कार-ख़ाना-ए-वहम-ओ-गुमाँ तमाम
सच्चे वही फ़साने थे जो आम थे बहुत

ख़ुद अपने इज़्तिरार-ए-तबीअ'त से तंग थे
हम जो शिकार-ए-गर्दिश-ए-अय्याम थे बहुत

लिपटी रही तो सर-बसर असरार थी वो ज़ुल्फ़
खुलती कभी तो उस के भी पैग़ाम थे बहुत

इक उम्र तजरबात में गुज़री तो ये खुला
याँ आज़मूदा-कार ही नाकाम थे बहुत