हम भी थे गोशा-गीर कि गुमनाम थे बहुत
इस तर्ज़-ए-ज़ीस्त में मगर आराम थे बहुत
दुनिया है कार-ख़ाना-ए-वहम-ओ-गुमाँ तमाम
सच्चे वही फ़साने थे जो आम थे बहुत
ख़ुद अपने इज़्तिरार-ए-तबीअ'त से तंग थे
हम जो शिकार-ए-गर्दिश-ए-अय्याम थे बहुत
लिपटी रही तो सर-बसर असरार थी वो ज़ुल्फ़
खुलती कभी तो उस के भी पैग़ाम थे बहुत
इक उम्र तजरबात में गुज़री तो ये खुला
याँ आज़मूदा-कार ही नाकाम थे बहुत
ग़ज़ल
हम भी थे गोशा-गीर कि गुमनाम थे बहुत
अासिफ़ जमाल