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हम बर्क़-ओ-शरर को कभी ख़ातिर में न लाए | शाही शायरी
hum barq-o-sharar ko kabhi KHatir mein na lae

ग़ज़ल

हम बर्क़-ओ-शरर को कभी ख़ातिर में न लाए

आल-ए-अहमद सूरूर

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हम बर्क़-ओ-शरर को कभी ख़ातिर में न लाए
उस फ़ित्ना-ए-दौराँ को मगर देख न पाए

गो क़तरे में दरियाओं का तूफ़ान समाए
पर शौक़ की रूदाद कब अल्फ़ाज़ में आए

ज़ुल्फ़ों को दिया है रुख़-ए-ज़ेबा ने अजब रंग
जल्वों से तिरे और भी रौशन हुए साए

ये इश्क़ के शो'ले भी अजब चीज़ें हैं या'नी
जो आग लगाए वही ख़ुद आग बुझाए

ढलती है वो मय इक तिरे पैमाने में साक़ी
मस्ती को भी जो होश के आदाब सिखाए

तेरी ही निगाहों का तसर्रुफ़ था कि हम ने
रानाई-ए-अफ़कार के ए'जाज़ दिखाए

जिस दिल पे किसी की निगह-ए-लुत्फ़ पड़ी थी
बैठे हैं 'सुरूर' उस को कलेजे से लगाए