हम अपनी पुश्त पर खुली बहार ले के चल दिए
सफ़र में थे सफ़र का ए'तिबार ले के चल दिए
सड़क सड़क महक रहे थे गुल-बदन सजे हुए
थके बदन इक इक गले का हार ले के चल दिए
जिबिल्लतों का ख़ून खौलने लगा ज़मीन पर
तो अहद-ए-इर्तिक़ा ख़ला के पार ले के चल दिए
पहाड़ जैसी अज़्मतों का दाख़िला था शहर में
कि लोग आगही का इश्तिहार ले के चल दिए
जराहतें मिलीं हमें भी इंकिसार के एवज़
झुका के सर सदाक़तों की हार ले के चल दिए

ग़ज़ल
हम अपनी पुश्त पर खुली बहार ले के चल दिए
याक़ूब यावर