हम अजल के आने पर भी तिरा इंतिज़ार करते
कोई वा'दा सच जो होता तो कुछ ए'तिबार करते
जो न सब्र और दम-भर तिरे बे-क़रार करते
अभी बर्क़ का तरीक़ा फ़लक इख़्तियार करते
अगर इतनी बात सुनते कि है इश्क़ में मुसीबत
कभी हम न तेरी ख़ातिर दिल-ए-बे-क़रार करते
दिल-ए-ज़ार बे-ख़बर था किया क़त्ल तो मज़ा क्या
ये सिपह-गरी है पहले इसे होशियार करते
यही चाहते हैं ऐ जाँ मिटे ग़म कि जान जाए
अभी मौत अगर न आती तिरा इंतिज़ार करते
ग़म-ओ-दर्द-ओ-रंज सह के तुझे देते हम दिल अपना
इन्हीं बेवफ़ाइयों पर तिरा ए'तिबार करते
जो सफ़र का वक़्त आया न पुकारे साथ वाले
अभी आँख लग गई थी हमें होशियार करते
जो ख़िलाफ़ उमीद के हो तो शिकस्ता-ख़ातिरी है
कई टुकड़े दिल के होते जो तुम एक वार करते
वो न आए मर गए हम अगर आते भी तो क्या था
यही जान सदक़े करते यही दिल निसार करते
हमें जान दे के मारा हमें दे के दिल मिटाया
न ग़म-ए-फ़िराक़ होता न ख़याल-ए-यार करते
वो अदा थी क़त्ल-गह में कि बयान से है बाहर
मिरे दिल पे ज़ख़्म पड़ता वो किसी पे वार करते
तिरी सम्त की तवज्जोह न कभी जहान-ए-फ़ानी
जो ज़रा सबात पाते तो कुछ ए'तिबार करते
ख़बर उस की पहले होती कि न आएगा ये हम को
तो 'रशीद' शे'र का फ़न न हम इख़्तियार करते
ग़ज़ल
हम अजल के आने पर भी तिरा इंतिज़ार करते
रशीद लखनवी