हम अहल-ए-जब्र के नाम-ओ-नसब से वाक़िफ़ हैं
सरों की फ़स्ल जब उतरी थी तब से वाक़िफ़ हैं
कभी छुपे हुए ख़ंजर कभी खिंची हुई तेग़
सिपाह-ए-ज़ुल्म के एक एक ढब से वाक़िफ़ हैं
वो जिन की दस्त-ख़तें महज़र-ए-सितम पे हैं सब्त
हर उस अदीब हर उस बे-अदब से वाक़िफ़ हैं
ये रात यूँ ही तो दुश्मन नहीं हमारी कि हम
दराज़ी-ए-शब-ए-ग़म के सबब से वाक़िफ़ हैं
नज़र में रखते हैं अस्र-ए-बुलंद-बामी-ए-मेहर
फ़ुरात-ए-जब्र के हर तिश्ना-लब से वाक़िफ़ हैं
कोई नई तो नहीं हर्फ़-ए-हक़ की तन्हाई
जो जानते हैं वो इस अम्र-ए-रब से वाक़िफ़ हैं
ग़ज़ल
हम अहल-ए-जब्र के नाम-ओ-नसब से वाक़िफ़ हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़