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हम अहल-ए-दिल भी अगर फ़िक्र-ए-जान-आे-तन करते | शाही शायरी
hum ahl-e-dil bhi agar fikr-e-jaan-o-tan karte

ग़ज़ल

हम अहल-ए-दिल भी अगर फ़िक्र-ए-जान-आे-तन करते

सईदुज़्ज़माँ अब्बासी

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हम अहल-ए-दिल भी अगर फ़िक्र-ए-जान-आे-तन करते
तो लोग हुस्न पे इज़हार-ए-हुस्न-ए-ज़न करते

भटक रही हैं ख़िज़ाँ दीदा ख़ार-ओ-ख़स की तरह
वो कम नज़र जो चले थे चमन चमन करते

बहार कब थी तिरा आइना कि दीवाने
क़बा-ए-गुल की तरह चाक पैरहन करते

सँवारता न कोई तेरी ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं को
जो हम भी पैरवी-ए-आहू-ए-ख़ुतन करते