हम अहल-ए-दिल भी अगर फ़िक्र-ए-जान-आे-तन करते
तो लोग हुस्न पे इज़हार-ए-हुस्न-ए-ज़न करते
भटक रही हैं ख़िज़ाँ दीदा ख़ार-ओ-ख़स की तरह
वो कम नज़र जो चले थे चमन चमन करते
बहार कब थी तिरा आइना कि दीवाने
क़बा-ए-गुल की तरह चाक पैरहन करते
सँवारता न कोई तेरी ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं को
जो हम भी पैरवी-ए-आहू-ए-ख़ुतन करते

ग़ज़ल
हम अहल-ए-दिल भी अगर फ़िक्र-ए-जान-आे-तन करते
सईदुज़्ज़माँ अब्बासी