हम अगर सच के उन्हें क़िस्से सुनाने लग जाएँ
लोग तो फिर हमें महफ़िल से उठाने लग जाएँ
याद भी आज नहीं ठीक तरह से जो शख़्स
हम उसे भूलना चाहें तो ज़माने लग जाएँ
शाम होते ही कोई ख़ुशबू दरीचा खोले
और फिर बीते हुए लम्हे सताने लग जाएँ
ख़ुद चराग़ों को अंधेरों की ज़रूरत है बहुत
रौशनी हो तो उन्हें लोग बुझाने लग जाएँ
इक यही सोच बिछड़ने नहीं देती तुझ से
हम तुझे बाद में फिर याद न आने लग जाएँ
एक मुद्दत से ये तन्हाई में जागे हुए लोग
ख़्वाब देखें तो नया शहर बसाने लग जाएँ
ग़ज़ल
हम अगर सच के उन्हें क़िस्से सुनाने लग जाएँ
शबाना यूसुफ़