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हम आँखों से भी अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते | शाही शायरी
hum aankhon se bhi arz-e-tamanna nahin karte

ग़ज़ल

हम आँखों से भी अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते

साग़र निज़ामी

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हम आँखों से भी अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते
मुबहम सा इशारा भी गवारा नहीं करते

हासिल है जिन्हें दौलत-ए-सद-आबला-पाई
वो शिकवा-ए-बे-रंगी-ए-सहरा नहीं करते

सद-शुक्र कि दिल में अभी इक क़तरा-ए-ख़ूँ है
हम शिकवा-ए-बे-रंगी-ए-दुनिया नहीं करते

मक़्सूद इबादत है फ़क़त दीद नहीं है
हम पूजते हैं आप को देखा नहीं करते

काफ़ी है तिरा नक़्श-ए-क़दम चाहे जहाँ हो
हम पैरवी-ए-दैर-ओ-कलीसा नहीं करते

सज्दा भी है मिनजुमला-ए-अस्बाब-ए-नुमाइश
जो ख़ुद से गुज़र जाते हैं सज्दा नहीं करते

जिन को है तिरी ज़ात से यक-गूना तअल्लुक़
वो तेरे तग़ाफ़ुल की भी परवा नहीं करते

ये लम्हा-ए-हाज़िर तो है कौनैन का हासिल
हम हाल को नज़्र-ए-ग़म-ए-फ़र्दा नहीं करते

हर आग को पहलू में छुपा लेते हैं 'साग़र'
हम तुन्दि-ए-सहबा से भी पिघला नहीं करते