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हल्क़ा-ए-बे-तलबाँ रँज-ए-गिराँ-बारी क्या | शाही शायरी
halqa-e-be-talaban ranj-e-giran-bari kya

ग़ज़ल

हल्क़ा-ए-बे-तलबाँ रँज-ए-गिराँ-बारी क्या

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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हल्क़ा-ए-बे-तलबाँ रँज-ए-गिराँ-बारी क्या
उठ के चलना ही तो है, कूच की तय्यारी क्या

एक कोशिश कि तअल्लुक़ कोई बाक़ी रह जाए
सो तिरी चारागरी क्या मिरी बीमारी क्या

तुझ से कम पर किसी सूरत नहीं राज़ी होता
दिल-ए-नादाँ ने दिखा रक्खी है हुश्यारी क्या

क़ैद-ख़ाने से निकल आए तो सहरा का हिसार
हम से टूटेगी ये ज़ंजीर-ए-गिरफ़्तारी क्या

वो भी तुर्फ़ा सुख़न-आरा हैं, चलो यूँ ही सही
इतनी सी बात पे यारों की दिल-आज़ारी क्या