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हलाकत-ए-दिल-ए-नाशाद राएगाँ भी नहीं | शाही शायरी
halakat-e-dil-e-nashad raegan bhi nahin

ग़ज़ल

हलाकत-ए-दिल-ए-नाशाद राएगाँ भी नहीं

अज़हर सईद

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हलाकत-ए-दिल-ए-नाशाद राएगाँ भी नहीं
निगाह-ए-दोस्त में अब कोई इम्तिहाँ भी नहीं

तलाश-ए-दैर-ओ-हरम का मआ'ल क्या कहिए
सुकूँ यहाँ भी नहीं है सुकूँ वहाँ भी नहीं

तिरी निगाह ने खोला मोआ'मला दिल का
नज़र ज़बाँ नहीं रखती प बे-ज़बाँ भी नहीं

उसी को सारे ज़माने से हम छुपाए रहे
वो एक बात ज़माने से जो निहाँ भी नहीं

सुबूत बर्क़ की ग़ारत-गरी का किस से मिले
कि आशियाँ था जहाँ अब वहाँ धुआँ भी नहीं

निशान-ए-क़ाफ़िला-ए-उम्र ढूँडने वालो
यहाँ तो दूर तलक गर्द-ए-कारवाँ भी नहीं