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हैरत है आह-ए-सुब्ह को सारी फ़ज़ा सुने | शाही शायरी
hairat hai aah-e-subh ko sari faza sune

ग़ज़ल

हैरत है आह-ए-सुब्ह को सारी फ़ज़ा सुने

जोश मलीहाबादी

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हैरत है आह-ए-सुब्ह को सारी फ़ज़ा सुने
लेकिन ज़मीं पे बुत न फ़लक पर ख़ुदा सुने

फ़रियाद-ए-अंदलीब से काँपे तमाम बाग़
लेकिन न गुल न ग़ुंचा न बाद-ए-सबा सुने

ख़ुद अपनी ही सदाओं से गूँजे हुए हैं कान
कोई किसी की बात सुने भी तो क्या सुने

ये भी अजब तिलिस्म है ऐ शोरिश-ए-हयात
दर्द-आश्ना की बात न दर्द-आश्ना सुने

शाहों के दिल तो संग हैं शाहों का ज़िक्र क्या
ये भी नहीं कि हाल गदा का गदा सुने

आलम है ये कि गोश-ए-बशर तक है बे-नियाज़
होना था ये कि बंदा कहे और ख़ुदा सुने

सुनते भी हैं जो लोग तो यूँ दास्तान-ए-ग़म
जैसे यज़ीद सानहा-ए-कर्बला सुने

हाँ ऐ ख़ुदा-ए-अर्श-ए-बरीं ओ बुतान-ए-फ़र्श
तुम में से हो कोई तो मिरा माजरा सुने

पश्मीना-पोश राह-नशीनों की इल्तिजा
शायद कभी वो शाहिद-ए-अतलस-क़बा सुने

हम नादिर ओ यज़ीद न हज्जाज हैं न शिम्र
अल्लाह और 'जोश' हमारी दुआ सुने