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हैं कश्मकश में आज तिरी दास्ताँ से हम | शाही शायरी
hain kashmakash mein aaj teri dastan se hum

ग़ज़ल

हैं कश्मकश में आज तिरी दास्ताँ से हम

अज़ीज़ बदायूनी

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हैं कश्मकश में आज तिरी दास्ताँ से हम
ऐ दिल शुरूअ' करें ये हिकायत कहाँ से हम

तेरा ख़ुलूस तेरी मोहब्बत तिरी नज़र
किस तरह छीन लाएँ मह-ओ-कहकशाँ से हम

नाज़ाँ है कोई अपने तग़ाफ़ुल पे मर्हबा
मजबूर हो रहे दिल-ए-नाज़-दाँ से हम

जोश-ए-जुनूँ ने थाम लिया है ख़ुलूस है
गुज़रे क़दम क़दम पे नए इम्तिहाँ से हम

क़हत-ए-वफ़ा में वलवला-ए-जाँ फ़ना हुआ
क्या बद-गुमाँ हैं आज किसी राज़दाँ से हम

ये तो ख़िज़ाँ-नसीब बहारों से पूछिए
वाबस्ता-ए-ख़ुलूस रहे गुलिस्ताँ से हम

महसूस हो रहा है कि मंज़िल क़रीब है
कुछ दूर जा चुके हैं फ़ज़ा-ए-जहाँ से हम

उफ़ वुसअ'त-ए-निगाह-ए-तख़य्युल न पूछिए
सो आसमाँ-बुलंद हैं इस आसमाँ से हम

ये दास्तान-ए-ग़म ही मता-ए-'अज़ीज़' है
दुनिया बसा रहे हैं ग़म-ए-जावेदाँ से हम