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हैं जल्वा-ए-तन से दर-ओ-दीवार बसंती | शाही शायरी
hain jalwa-e-tan se dar-o-diwar basanti

ग़ज़ल

हैं जल्वा-ए-तन से दर-ओ-दीवार बसंती

अमानत लखनवी

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हैं जल्वा-ए-तन से दर-ओ-दीवार बसंती
पोशाक जो पहने है मिरा यार बसंती

क्या फ़स्ल-ए-बहारी ने शगूफ़े हैं खिलाए
माशूक़ हैं फिरते सर-ए-बाज़ार बसंती

गेंदा है खिला बाग़ में मैदान में सरसों
सहरा वो बसंती है ये गुलज़ार बसंती

उस रश्क-ए-मसीहा का जो हो जाए इशारा
आँखों से बने नर्गिस-ए-बीमार बसंती

गेंदों के दरख़्तों में नुमायाँ नहीं गेंदे
हर शाख़ के सर पर है ये दस्तार बसंती

मुँह ज़र्द दुपट्टे के न आँचल से छुपाओ
हो जाए न रंग-ए-गुल-ए-रुख़्सार बसंती

खिलती है मिरे शोख़ पे हर रंग की पोशाक
ऊदी, अगरी, चम्पई, गुलनार, बसंती

है लुत्फ़ हसीनों की दो-रंगी का 'अमानत'
दो चार गुलाबी हों तो दो चार बसंती