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है वस्फ़ तिरा मुहीत-ए-आज़म | शाही शायरी
hai wasf tera muhit-e-azam

ग़ज़ल

है वस्फ़ तिरा मुहीत-ए-आज़म

इस्माइल मेरठी

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है वस्फ़ तिरा मुहीत-ए-आज़म
याँ ताब किसे शनावरी की

दी ज़िंदगी और उस का सामाँ
क्या शान है बंदा-परवरी की

शाहनशह-ए-वक़्त है वो जिस ने
तेरे दर की गदागरी की

बद-तर हूँ वले करम से तेरे
उम्मीद-ए-क़वी है बेहतरी की

क्या आँख को तिल दिया कि जिस में
वुसअत है चर्ख़-ए-चम्बरी की

देखा तो वही है राह-ओ-रहरव
फिर उस ने है आप रहबरी की

हर शक्ल में था वही नुमूदार
हम ने ही निगाह सरसरी की

क्या बात है गर किया तरह्हुम
हैहात जो तू ने दावरी की

की ब'अद-ए-ख़िज़ाँ बहार पैदा
सूखी टहनी हरी-भरी की

झूट और मुबालग़ा ने अफ़्सोस
इज़्ज़त खो दी सुख़नवरी की

लिक्खी थी ग़ज़ल ये आगरा में
पहली तारीख़ जनवरी की