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है मिरा तार-ए-नफ़स तार-ए-क़फ़स | शाही शायरी
hai mera tar-e-nafas tar-e-qafas

ग़ज़ल

है मिरा तार-ए-नफ़स तार-ए-क़फ़स

मीर कल्लू अर्श

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है मिरा तार-ए-नफ़स तार-ए-क़फ़स
रिश्ते बरपा हों गिरफ़्तार-ए-क़फ़स

मुर्ग़-ए-दिल को ज़ब्ह ऐ सय्याद कर
और ताइर हैं सज़ावार-ए-क़फ़स

शौक़ बुलबुल को असीरी का जो हो
हो ज़र-ए-गुल से ख़रीदार-ए-क़फ़स

क्यूँ न मैं रंगीं-बयाँ हूँ क़ैद-ए-रंज
मुर्ग़-ए-ख़ुश-ख़्वाँ है सज़ावार-ए-क़फ़स

ज़िंदगी से क़ैद में भी हूँ सुबुक
गाह बार-ए-दाम गह बार-ए-क़फ़स

मुझ सा बुलबुल क़ैद हो कर छूट जाए
सो गए क्या बख़्त-ए-बेदार-ए-क़फ़स

चश्म-ए-आलम में असीर-ए-दाम है
रूह है तन में सज़ावार-ए-क़फ़स

फाँद कर आया था दीवार-ए-चमन
फाँद जाऊँ क्यूँ कि दीवार-ए-क़फ़स

क्या है दाग़-ए-ख़ून-ए-बुलबुल की बहार
देख ऐ सय्याद गुलज़ार-ए-क़फ़स

कब किसी बुलबुल को मिलता है गुलाब
ख़ून-ए-दिल पीता है बीमार-ए-क़फ़स

ज़ब्ह करने को उतारा नख़्ल से
सर मिरा था पा-ए-रफ़्तार-ए-क़फ़स

पूछता है क्या दिल-ए-बुलबुल का हाल
देख ज़ालिम जिस्म-अफ़्गार-ए-क़फ़स

अश्क को है दाम-ए-गेसू की तलाश
तिफ़्ल होता है ख़रीदार-ए-क़फ़स

ता-ब-कै होगा असीर-ए-दाम-ए-फ़िक्र
'अर्श' कर मौक़ूफ़ अशआ'र-ए-क़फ़स