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है जान-ए-हज़ीं एक लब-ए-रूह-फ़ज़ा दो | शाही शायरी
hai jaan-e-hazin ek lab-e-ruh-faza do

ग़ज़ल

है जान-ए-हज़ीं एक लब-ए-रूह-फ़ज़ा दो

इस्माइल मेरठी

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है जान-ए-हज़ीं एक लब-ए-रूह-फ़ज़ा दो
ऐ काश कि इस एक की हो जाएँ दवा दो

था ख़ार-ए-जिगर हिज्र में तन्हा ग़म-ए-दूरी
हैं आफ़त-ए-जाँ वस्ल में अब शर्म-ओ-हया दो

मस्ताना-रविश क्यूँ न चले वो निगह-ए-नाज़
आँखें हैं कि हैं जाम-ए-मय-ए-होश-रुबा दो

जी तंग है क्या कीजिए और जोश-ए-बला ये
दिल एक है क्या दीजिए और ज़ुल्फ़-ए-दोता दो

है ऐन इनायत जो निशाँ पूछिए मेरा
ये भी नहीं मंज़ूर तो अपना ही पता दो

क्या दाम-ए-फ़रेब उस ने बिछाया है दिल-आवेज़
दो आन फँसें और जो हो जाएँ रिहा दो

गर नाज़-ए-ख़ुद-आरा को है यकताई का दावा
क्यूँ आईना देखा कि हुए जल्वा-नुमा दो

बेबाकी-ओ-शोख़ी भी है और शर्म-ओ-हया भी
दो महरम-ए-असरार हैं तो पर्दा-कुशा दो

दो गेसू-ओ-दो ज़ुल्फ़-ए-बला-ख़ेज़ हैं चारों
हाँ काकुल-ए-ख़मदार भी हैं उन के सिवा दो

वो तर्ज़-ओ-रविश हाए वो अंदाज़-ओ-अदा हैफ़
क्या बचते दिल-ओ-जान कुजा चार कुजा दो

सेरी-ए-नज़र भी न हुई हाए मयस्सर
आँखें जो हुईं चार लगे तीर-ए-क़ज़ा दो