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है ईद लाओ मय-ए-लाला-फ़ाम उठ उठ कर | शाही शायरी
hai id lao mai-e-lala-fam uTh uTh kar

ग़ज़ल

है ईद लाओ मय-ए-लाला-फ़ाम उठ उठ कर

मुनीर शिकोहाबादी

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है ईद लाओ मय-ए-लाला-फ़ाम उठ उठ कर
गले लगाते हैं शीशों को जाम उठ उठ कर

हवा चली मिरी उफ़्तादगी की ऐ साक़ी
गिरेंगे नश्शे में सब ख़ुश-ख़िराम उठ उठ कर

ज़मीन-ओ-अर्श-ओ-फ़लक पाएमाल होते हैं
न जाओ सहन से बाला-ए-बाम उठ उठ कर

कोई बशर न हो मग़रूर जिस्म-ए-ख़ाकी पर
कि बैठते हैं बहुत क़स्र-ए-ख़ाम उठ उठ कर

दम-ए-सहर नज़र आया है किस का मुँह यारब
सनम जो करते हैं मुझ को सलाम उठ उठ कर

ज़रा उठाइए ताबूत अपने आशिक़ का
ख़ुदा की राह का करते हैं काम उठ उठ कर

क़यामत आई है हलचल है आसमानों पर
न फिरिए बहर-ए-ख़ुदा बाम बाम उठ उठ कर

पड़े हैं पाँव की सूरत ज़बान में घट्टे
ये क़ासिदों को दिए हैं पयाम उठ उठ कर

बनेगी शोला-ए-जव्वाला गर्दिश-ए-क़िस्मत
तुम्हारे गिर्द फिरेगा ग़ुलाम उठ उठ कर

बढ़ेगी बात न बैठेंगे चुपके हम ऐ बुत
रक़ीब से जो करोगे कलाम उठ उठ कर

रहेगी आशिक़ों के दस्त-ओ-पा में जब तक हिस
तुम्हारी लेंगे बलाएँ मुदाम उठ उठ कर

ख़ुदा बिठाए अगर कर्बला में मुझ को 'मुनीर'
फिरूँ मैं गिर्द-ए-मज़ार-ए-इमाम उठ उठ कर