है है कोई दिल देने के क़ाबिल नहीं मिलता
अरमान तड़पते हैं कि क़ातिल नहीं मिलता
हो अक़्ल तो हो तिल की जगह आँख में लैली
झक क़ैस की है साहिब-ए-महमिल नहीं मिलता
गुल की तिरे रुख़्सार से रंगत नहीं मिलती
नाले से मिरे शोर-ए-अनादिल नहीं मिलता
अपना भी तो मिलता नहीं दिल मुझ से फिर ऐ यार
किस मुँह से कहूँ तुझ से तिरा दिल नहीं मिलता
बोसा नहीं देते हैं शब-ए-वस्ल में भी आप
मज़रूआ'-ए-उमीद का हासिल नहीं मिलता
मिलता नहीं आरिज़ से तिरे मेहर-ए-दरख़्शाँ
पेशानी से तेरी मह-ए-कामिल नहीं मिलता
चमके न 'वक़ार' आगे रुख़-ए-यार के ख़ुर्शीद
समझे रहे हक़ से कभी बातिल नहीं मिलता
यारब तमकीं दहर में क़ातिल नहीं मिलता
फीके किसी दिलबर से मिरा दिल नहीं मिलता
वो इश्क़ का दरिया है कि इल्यास को जिस का
कहने को पए नाम भी साहिल नहीं मिलता
मौजूद है फ़िलफ़िल मुझे ग़म इस का नहीं है
गर देखने को रुख़ का तिरे तिल नहीं मिलता
मश्क़-ए-सितम-ओ-जोर का चौरंग हूँ इस से
आशिक़ कोई मुझ सा उन्हें बे-दिल नहीं मिलता
अशआ'र 'वक़ार' ऐसी ग़ज़ल मैं कहूँ क्या ख़ाक
मुश्किल तो ये है क़ाफ़िया मुश्किल नहीं मिलता

ग़ज़ल
है है कोई दिल देने के क़ाबिल नहीं मिलता
किशन कुमार वक़ार