है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी 
तेरा ग़म भी है मुझे और ग़म-ए-तन्हाई भी 
दश्त-ए-वहशत में ब-जुज़-रेग-ए-रवाँ कोई नहीं 
आज कल शहर में है लाला-ए-सहराई भी 
मैं ज़माने में तिरा ग़म हूँ ब-उनवान-ए-वफ़ा 
ज़िंदगी मेरी सही है तिरी रुस्वाई भी 
आज तू ने भी मिरे हाल से मुँह फेर लिया 
आज नम-नाक हुई चश्म-ए-तमाशाई भी 
अब खुला है कि तिरा हुस्न-ए-तग़ाफ़ुल था करम 
गरचे कुछ देर तबीअत मिरी घबराई भी 
जुज़-ग़म-ए-दहर मुझे कोई न पहचान सका 
तिरे कूचे में तिरी याद मुझे लाई भी 
उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं 
वो जो कल कहते थे दीवाना भी सौदाई भी
        ग़ज़ल
है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
यूसुफ़ ज़फ़र

