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है दिल-ए-सोज़ाँ में तूर उस की तजल्ली-गाह का | शाही शायरी
hai dil-e-sozan mein tur uski tajalli-gah ka

ग़ज़ल

है दिल-ए-सोज़ाँ में तूर उस की तजल्ली-गाह का

इमाम बख़्श नासिख़

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है दिल-ए-सोज़ाँ में तूर उस की तजल्ली-गाह का
रू-ए-आतिशनाक हर शोला है मेरी आह का

वस्ल क्या हम ख़ाकसारों को हो इस दिल-ख़्वाह का
ख़ाक में आलूदा होना कब है मुमकिन माह का

नूर-अफ़शाँ जब से है दिल में ख़याल उस माह का
तूर का शोला धुआँ है मेरी शम-ए-आह का

क़ामत-ए-मौज़ूँ नज़र आए मुझे जा-ए-अलिफ़
था शुरू-ए-आशिक़ी दिन मेरी बिस्मिल्लाह का

समझे मय-कश देख कर अबरू तिरी बाला-ए-चश्म
मय-कदे से मर्तबा आला है बैतुल्लाह का

आमद-ए-ख़त में तो होने दे निगाहों का गुज़र
देख ले बचने नहीं पाता है सब्ज़ा राह का

ख़ल्क़ ने क़ुरआन देखा जब हुआ माह-ए-रजब
हम ने देखा मुसहफ़-ए-रुख़्सार अपने माह का

आते ही उस तिफ़्ल के रौशन सियह-ख़ाना हुआ
शम्अ साँ जल्वा है उस के क़ामत-ए-कोताह का

यार का 'नासिख़' फटा है पैरहन तो ऐब क्या
है कताँ को चाक करना काम नूर-ए-माह का