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है बे-लब-ओ-ज़बाँन भी ग़ुल तेरे नाम का | शाही शायरी
hai be-lab-o-zaban bhi ghul tere nam ka

ग़ज़ल

है बे-लब-ओ-ज़बाँन भी ग़ुल तेरे नाम का

इस्माइल मेरठी

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है बे-लब-ओ-ज़बाँन भी ग़ुल तेरे नाम का
महरम नहीं है गोश मगर इस पयाम का

ख़ुश है मलामत अहल-ए-ख़राबात कै लिए
इस सिलसिले में नाम नहीं नंग-ओ-नाम का

नख़वत है जिस के कासा-ए-सर में भरी हुइ
कब मुस्तहिक़ है महफ़िल रिंदाँ में जाम का

जागीर-ए-दर्द पर हमें सरकार-ए-इश्क़ ने
तहरीर कर दिया है वसीक़ा दवाम का

वादी-ए-इश्क़ में न मिला कोई हम-सफ़र
सुनते थे नाम ख़िज़्र अलैहिस-सलाम का

आसूदगी न ढूँड कि जाता है कारवाँ
ले मुस्तआर बर्क़ से वक़्फ़ा क़याम का

खोला है मुझ पे सिर्र-ए-हक़ीक़त मजाज़ ने
ये पुख़्तगी सिला है ख़यालात-ए-ख़ाम का

खाता नहीं फ़रेब-ए-तमन्ना-ए-दो-जहाँ
ख़ूगर नहीं है तौसन-ए-हिम्मत लगाम का

मत रख तमअ से चश्म-ए-तमत्तो कि है यहाँ
दाना हर एक मर्दुमक-ए-दीदा-दाम का

पहुँचा दिया हुदूद-ए-दो-आलम से भी परे
मुतरिब ने राग छेड़ दिया किस मक़ाम का

ज़ुल्मत में क्या तमीज़ सफ़ेद-ओ-सियाह की
फ़ुर्क़त में कुछ हिसाब नहीं सुब्ह-ओ-शाम का

जिस की नज़र है सनअत-ए-अबरू-निगार पर
है वो क़तील-ए-तेग़ न कुश्ता नियाम का

खाने को ऐ हरीस ग़म-ए-इश्क़ कम नहीं
ये हो तो कुछ भी फ़िक्र न कर क़र्ज़-ओ-वाम का

मैं बे-क़रार-ए-मंज़िल-ए-मक़सूद बे-निशाँ
रस्ते की इंतिहा न ठिकाना मक़ाम का

गर देखिए तो ख़ातिर-ए-नाशाद शाद है
सच पूछिए तो है दिल-ए-नाकाम काम का

उट्ठे तिरी नक़ाब तो उठ जाए एक बार
सब तफ़रक़ा ये रोज़-ओ-शब-ओ-सुब्ह-ओ-शाम का