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है बे-ख़ुद वस्ल में दिल हिज्र में मुज़्तर सिवा होगा | शाही शायरी
hai be-KHud wasl mein dil hijr mein muztar siwa hoga

ग़ज़ल

है बे-ख़ुद वस्ल में दिल हिज्र में मुज़्तर सिवा होगा

रशीद लखनवी

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है बे-ख़ुद वस्ल में दिल हिज्र में मुज़्तर सिवा होगा
ख़ुशी जिस घर की ऐसी है वहाँ का रंज क्या होगा

अभी तो यार से कहने की दिल में बातें हैं लाखों
न कुछ याद आएगा उस वक़्त जिस दम सामना होगा

मिरे मदफ़न की मिट्टी का वो खिचवाएँगे इत्र अक्सर
अगर बू-ए-वफ़ा का उन के दिल में कुछ मज़ा होगा

वो गेसू बढ़ते जाते हैं बलाएँ होती हैं नाज़िल
क़दम तक आ गए जब हश्र आलम में बपा होगा

ग़ज़ब करते हो मेरे दिल को अबरू से छुड़ाते हो
भला समझो तो क्यूँकर गोश्त नाख़ुन से जुदा होगा

अदम में मेरा क्या क्या दम रुकेगा एक मुद्दत तक
नई बस्ती नई पोशाक होगी घर नया होगा

उतारा ख़ून के दरिया से होगा सरफ़रोशों का
बनेगी तेग़ कश्ती और क़ातिल नाख़ुदा होगा

बयाँ था रोज़-ए-अव्वल ये मिरे दिल की उदासी का
बड़ी उस घर की आबादी ये है मातम-सरा होगा

ख़बर ले बाग़बाँ है किस ग़ज़ब का हब्स गुलशन में
हवा है बंद असीरान-ए-क़फ़स का दम रुका होगा

मिरे सीने से दिल के टूटने की क्यूँ सदा आई
मगर याँ हाथ से साक़ी के शीशा गिर पड़ा होगा

सितमगर आएगा अक्सर ख़बर लेने को ज़िंदाँ में
हमें वो बेड़ियाँ पहना के पाबंद-ए-वफ़ा होगा

रक़ीबों की उमीदों को जगह देते हैं दिल में हम
कि उन में से कोई आख़िर हमारा मुद्दआ होगा

नहीं है जिस में तेरा इश्क़ वो दिल है तबाही में
वो कश्ती डूब जाएगी न जिस में नाख़ुदा होगा

'रशीद' उल्फ़त से जब वाक़िफ़ न थे अक्सर ये कहते थे
न दिल से हम जुदा होंगे न हम से दिल जुदा होगा