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है और बात बहुत मेरी बात से आगे | शाही शायरी
hai aur baat bahut meri baat se aage

ग़ज़ल

है और बात बहुत मेरी बात से आगे

ज़फ़र इक़बाल

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है और बात बहुत मेरी बात से आगे
ज़मीन ज़र्रा है इस काएनात से आगे

इक और सिलसिला-ए-हादसात है रौशन
इस एक सिलसिला-ए-हादसात से आगे

हवा-ए-अक्स-ए-बहार-ओ-ख़िज़ाँ नहीं है फ़क़त
अगर निगाह करो फूल पात से आगे

ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम ओ सहर
कभी तो जाएँगे इस दाल-भात से आगे

कुछ और तरह के अतराफ़ मुंतज़िर हैं कहीं
उठाएँ ज़हमत अगर शश-जहात से आगे

न रोक पाए तग़य्युर की तेज़ तुग़्यानी
जो बंद बाँधने आए सबात से आगे

कुएँ में बैठ के ही टरटरा गए कुछ दिन
नज़र पड़ा नहीं कुछ अपनी ज़ात से आगे

इस आब ओ रंग से बाहर भी इक तमाशा है
चले-चलो जो नज़र की सिफ़ात से आगे

'ज़फ़र' ये दिन तो नतीजा है रात का यकसर
कुछ और ढूँडता रहता हूँ रात से आगे