हद्द-ए-पर्वाज़-ए-जमाल आप की अंगड़ाई है
इस से आगे मिरे एहसास की रा'नाई है
अब सफ़र और भी दुश्वार हुआ हम-सफ़रो
तीरगी राह की ज़ेहनों में सिमट आई है
थे जो महबूस तो आफ़ाक-निगाही थी नसीब
हुए आज़ाद तो हर चीज़ इलाक़ाई है
हम कभी रोए थे जिस बात पे पहरों ऐ 'नक़्श'
आज उस बात पे रह रह के हँसी आई है
ग़ज़ल
हद्द-ए-पर्वाज़-ए-जमाल आप की अंगड़ाई है
मक़बूल नक़्श