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हाथ से छू कर ये नीला आसमाँ भी देखते | शाही शायरी
hath se chhu kar ye nila aasman bhi dekhte

ग़ज़ल

हाथ से छू कर ये नीला आसमाँ भी देखते

राशिद मुफ़्ती

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हाथ से छू कर ये नीला आसमाँ भी देखते
जो उफ़ुक़ के पार हैं वो बस्तियाँ भी देखते

मुतमइन हैं जो बहुत खुलते दरीचे देख कर
वो किसी दिन बंद होती खिड़कियाँ भी देखते

इस ख़राबे में भी मुमकिन है कोई आबाद हो
इक नज़र अंदर से ये उजड़ा मकाँ भी देखते

आज जिस तन पर नज़र आती है ज़ख़्मों की क़बा
कल उसी तन पर लिबास-ए-परनियाँ भी देखते

सिर्फ़ अख़बारों की सुर्ख़ी तक रही जिन की नज़र
काश वो चेहरों पे लिक्खी दास्ताँ भी देखते

खींच लाई है जिन्हें इस दर पे शोलों की तपिश
काश वो इस घर पे मंडलाता धुआँ भी देखते

ज़ख़्म सीने पर तो 'राशिद' सह लिया हम ने मगर
तीर ये जिस से चला था वो कमाँ भी देखते