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हाथ आ सका है सिलसिला-ए-जिस्म-ओ-जाँ कहाँ | शाही शायरी
hath aa saka hai silsila-e-jism-o-jaan kahan

ग़ज़ल

हाथ आ सका है सिलसिला-ए-जिस्म-ओ-जाँ कहाँ

सहर अंसारी

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हाथ आ सका है सिलसिला-ए-जिस्म-ओ-जाँ कहाँ
अपनी तलब में घूम चुका हूँ कहाँ कहाँ

जिस बज़्म में गया तलब-ए-सर-ख़ुशी लिए
मुझ से तिरे ख़याल ने पूछा यहाँ कहाँ

मैं आज भी ख़ला में हूँ कल भी ख़ला में था
मेरे लिए ज़मीन कहाँ आसमाँ कहाँ

तू है सो अपने हुस्न के बा-वस्फ़ ग़म-नसीब
मैं हूँ तो मेरे हाथ में कौन-ओ-मकाँ कहाँ

होती है एक दुश्मनी ओ दोस्ती की हद
इस हद के बाद ज़हमत-ए-लफ़्ज़-ओ-बयाँ कहाँ

राह-ए-जुनूँ में तेशा-ब-दस्त आ गया हूँ मैं
हर संग है गिराँ मगर इतना गिराँ कहाँ

अब छोड़िए तसव्वुर-ए-ज़ुल्फ़-ओ-मिज़ा 'सहर'
दश्त-ए-ग़म-ए-जहाँ में कोई साएबाँ कहाँ