हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
ईद है और हम को ईद नहीं
छेड़ देखो कि ख़त तो लिक्खा है
मेरे ख़त की मगर रसीद नहीं
जानते हों उमीद-वार मुझे
उन से ये भी मुझे उमीद नहीं
यूँ तरसते हैं मय को गोया हम
पीर-ए-मय-ख़ाना के मुरीद नहीं
ख़ून हो जाएँ ख़ाक में मिल जाएँ
हज़रत-ए-दिल से कुछ बईद नहीं
आओ मेरे मज़ार पर भी कभी
कुश्ता-ए-नाज़ क्या शहीद नहीं
हम तो मायूस हैं मगर 'बेख़ुद'
दिल-ए-ना-फ़हम ना-उमीद नहीं
ग़ज़ल
हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
बेखुद बदायुनी